हर आमचुनाव से पहले मतदाता सूची के नवीनीकरण का काम होता है. इस बार जो नवीनीकरण हुआ है उसमें १४ करोड़ नौजवान जुड़े हैं. इन १४ करोड़ नौजवानों में ८ करोड़ ऐसे हैं जो इंटरनेट का यदा-कदा प्रयोग करते हैं. जाहिर सी बात है अभी-अभी इन नौजवानों ने १८ साल की दहलीज पार की है. इससे कुछ जादा ही अगली मतदाता सूची में देश के जिम्मेदार नागरिक बगेंगे. अंदाज ऐसा लगता है कि कोई ३० से ३५ करोड़ किशोर और नौजवान ऐसे हैं जिनकी उम्र १८ के आगे-पीछे है जिनमें अधिकांश इंटरनेट की आधुनिक संचार प्रणाली से जुड़े हैं.
जिस देश में ३० से ३५ करोड़ किशोर और नौजवान हों उस देश में प्यार की संभावनाओं को नकारा नहीं जाना चाहिए. विश्व सेक्स एटलस सर्वे हर साल अपने सर्वेक्षणों में एक बात कहता आ रहा है कि जवानी की उम्र घट रही है. यानी, ब्रिटेन में औसत ८ से १० साल की लड़की अपने आप को जवान महसूस करने लगती है. इस उम्र से आगे आते-आते उसे जीवनसाथी की जरूरत महसूस होने लगती है. यूरोप ठंडा प्रदेश है और ढंडे प्रदेश में कम उम्र में यौन व्यवहार की मांग अव्याहारिक नहीं होनी चाहिए. इसलिए वहां के सर्वेक्षण जो डाटा इकट्ठा करते हैं उसमें यौन व्यवहार को वे घृणा और सांस्कृतिक पतन का रोना रोने से ज्यादा व्यावहारिक जानकारी इकट्ठा करने की दृष्टि से होते हैं. फिर इन्हीं सर्वेक्षणों के आधार पर नागरिक नीितयां निर्धारित होती हैं.
आज भारत जिस प्रकार की सामाजिक संक्रांति से गुजर रहा है यूरोप बहुत पहले गुजर चुका है. वह आज जहां है अपनी समझ साफ करके और अपनी जरूरतों के हिसाब से है. प्यार पर पहरे जैसे जुमले पश्चिमी सभ्यता में इसलिए सुनाई नहीं देते क्योंकि संभवतः वहां प्यार दिल से ज्यादा दिमाग की उस नस से जुड़ा है जिसकी खोज एक दिन पहले ही की गयी है. यूरोप के वैज्ञानिक …….ने खोजा है कि दिमाग में …….नामक धमनी प्यार का रस उत्पादन करती है और स्त्री पुरूष एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं. जाहिर सी बात है जवानी में जैसे सारे पैंक्रियाज बेहतर रसोत्पादन करके पाचन को मजबूती से चलाते हैं वैसे ही यह धमनी भी प्यार वाला रस अधिक मात्रा में उत्सर्जित करती है ऐसे में किसी किशोर या नौजवान में प्यार का प्रवाह किसी वयस्क व्यक्ति से अधिक होना ही चाहिए.
भारत के युवकों में यह रस प्रवाहित क्यों नहीं होना चाहिए? अगर हम मानते हैं कि भारत दुनिया के सबसे सुंदर मानसून का धनी देश है तो यहां के लोगों का जीवन दुनिया के दूसरे देशों से ज्यादा सरस होना ही चाहिए. दुनिया में भारत सबकान्टिनेन्ट ही अकेला ऐसा क्षेत्र है जहां छह ऋतुएं मिलती हैं जबकि दुनिया के बाकी देश दो से तीन ऋतुओं में सिमटे हुए हैं. अगर वातावरण अच्छा है, तो यहां के लोगों का विकास क्रम दुनिया के दूसरे हिस्सों से बेहतर होना ही चाहिए. और वह है भी. दुनिया में सबसे बेहतर आईक्यू लेवल भारतीयों का है. वर्तमान लोकतंत्र का ढांचा बनने से भी पहले दुनिया के सबसे अधिक लोकतांत्रिक भारतीय होते हैं. किसी समाज की श्रेष्ठता उसकी स्वीकार्यता से आंकी जाती है. दुनिया में भारतीय समाज ही ऐसा समाज है जो इस मापदंड पर चुपचाप खरा उतरता है. फिर प्यार के मामले में यह दकियानूसी कैसे हो सकता है?
वेलेन्टाईन का भारत आगमन पूंजी प्रवाह के साथ हुआ है. पहली बार ९७-९८ के आस-पास वेलेन्टाईन शब्द भारत में प्रचलित होने लगता है. इसी दौर में खिलौना और गिफ्ट बनानेवाली कंपनियों ने नये तरह के प्रयोग शुरू किये. उन्होंने उपहार को बाजार माना और पश्चिम की तर्ज पर पारिवारिक संबंधों में किसी खास दिन को समर्पित किया. प्यार और अपनेपन है तो ठीक लेकिन उसे दिखाना भी होता है. अब तक भारत में अपनापन दिखाने के तरीके बड़े परंपरागत हुआ करते थे. खिलौना और गिफ्त कारोबार करने वाली कंपनियों ने इसमें सेंध लगाई क्योंकि बिना सेंध लगाए उनके लिए व्यापार की संभावना पैदा नहीं होती. प्रगतिशील अखबारों ने इन खिलौना और गिफ्ट कंपनियों का समर्थन इसलिए किया क्योंकि ये कंपनियां प्रगतिशील मीडिया घरानों के लिए विज्ञापन मुहैया कराती हैं.
शुरूआती दौर में कुल खेल तो इतना ही था. लेकिन इधर पश्चिम से उधार ली गयी महान शिक्षा व्यवस्था ने भारत में उन्मुक्त नौजवान पीढ़ी तैयार कर दी थी. उसने इस मौके को पकड़ लिया. १२ से २२ साल के शहरी नौजवानों के पास अब अपना प्यार जताने के दो मौके हैं. पहला, फ्रेण्डशिप डे और दूसरा वेलेन्टाईन डे. ये दोनों ही मौके हमारी अनुदार अर्थव्यवस्था ने उपलब्ध करवाये हैं. कोई भी व्यक्ति कल्पना नहीं कर सकता कि जिस देश में ३०-३५ करोड़ किशोर नौजवान प्यार जताने पर अमादा हों उन्हें दुनिया की कोई ताकत रोक सकती है. और कोई रोकना भी क्यों चाहता है?
जो लोग वेलेन्टाईन डे का विरोध कर रहे हैं उनके तर्क बहुत कमजोर हैं. वे कहते हैं कि मनाना ही है तो कृष्ण को आदर्श मानकर प्यार को अभिव्यक्त करो. उनसे कोई यह पूछे कि कृष्ण तो तीन हजार साल से हैं फिर पिछले तेरह सालों में ही प्यार का ऐसा ज्वार क्यों खड़ा हुआ? विरोध करनेवाले जो नहीं समझ पाते वह यह कि आदर्श और सिद्धांत के नाम पर पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीय नौजवानों को कत्ल किया जाता रहा है. फिर भी प्यार तो रहा ही होगा. लोगों ने कम उम्र के संबंध तो बनाये ही होंगे. फिर आज यह रोना-पीटना क्यों? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि चोरी-छिपे जो बातें होती थीं, वह सरेआम होने लगी हैं, इसलिए?
भारत अनुदार देश नहीं है. मानसूनी परिस्थितियों के कारण इस भूक्षेत्र पर रहनेवाले लोग प्यार और सेक्स के प्रति अति उदार हैं. लेकिन लगातार हमलों में बचाव के जो उपाय निकाले गये उसके कारण यहां की जीवनधारा भ्रष्ट हो गयी. इसी भूक्षेत्र में मुसलमानों ने जब सहज जीवन को अपने धार्मिक कट्टरता से जोड़ने की कोशिश की तो तालिबान पैदा हो गये. हिन्दू संगठन भी जो कर रहे हैं वह उस मवाद को बहने से रोकने की कोशिश है जो सदियों से यहां के नौजवानों के मन में दबी हुई है. यह बात सही है कि कच्ची उम्र में आप पक्के प्रेम की आशा नहीं कर सकते लेकिन यह तय करनेवाले हम कौन हैं?
जिसकी जिंदगी है वह तय करेगा. अगर उसे बर्बाद ही होना है तो हो जाने दो. सदियों से भारतीय मानस में प्यार और सेक्स को लेकर जिस कुंठा ने कुंडली मार रखी है उसे खोलना बहुत जरूरी है. वेलन्टाईन और ऐसे बाजारू त्यौहार उस कुंठा को तोड़ रहे हैं. इनके ऊपर अपने आदर्श थोपने की बजाय इन्हें होने दो. अगर इस देश को नौजवान चाहिए तो प्यार को उसके उसी रूप में व्यक्त होने दो. घर के अंदर भी चौराहे पर भी. जो मुक्त होना चाहते हैं उन्हें स्वच्छंद कर दो. जो पार्कों में भटक रहे हैं उनके लिए विशिष्ट स्थान बनवा दो. क्योंकि इस देश का नौजवान जहां अटका हुआ है अगर उससे बाहर नहीं निकलता तो इस देश को भी गर्त से बाहर कोई नहीं निकाल सकता. कई पीढ़ियां बर्बाद हुई हैं, एक दो पीढ़ी को इस संभावित नवजागरण के नाम पर भी बर्बाद कर देने में कोई हर्ज नहीं है.