इस समय मुझे लगा, मैं नहीं कह सकता कि वह सही थाद्ध कि वे हम पर घोड़े दौड़ाएंगे और यों हमको बुरी तरह खदेड़ेंगे। घुड़सवारों से इस तरह पीटे जाने का ख्याल मुझे अच्छा न लगा और वहाँ बैठे-बैठे मेरा जी भी उकता उठा था। मैंने झट से अपने नजदीक वाले को सुझाया कि हम इस घेरे को ही क्यों न फाँद जाएं? और मैं उस पर चढ़ गया और कुछ लोगों ने तो उसकी बल्लियां भी निकाल डाली जिससे एक खासा रास्ता बन गया।
किसी ने मुझे एक राष्ट्रीय झण्डा दे दिया, जिसे मैंने उस घेरे के सिरे पर खोंस दिया जहाॅं कि मैं बैठा हुआ था। मैं अपने पूरे रंग में था और खूब मगन हो रहा था और लोगों को उस पर चढ़ते और उसके बीच में घुसते हुए और घुड़सवारों को उन्हें हटाने की कोशिश करते देख रहा था।
यहाॅं मुझे यह जरूर कहना चाहिए कि घुड़सवारों से जितना हो सका, इस तरह अपना काम किया कि किसी को चोट न पहुँचे। वे अपनी लकड़ी के डण्डों को हिलाते थे और लोगों को उनसे धक्का देते थे मगर किसी को चोट नहीं पहुचाँते थे। आखिर मैं दूसरी तरफ उतर पड़ा। इतनी मेहनत के कारण गर्मी लगने लगी थी।
मैंने गंगा में गोता लगा लिया। जब वापस आया, तो मुझे यह देखकर अचरज हुआ कि मालवीय जी और दूसरे लोग जब तक जहाँ के तहाॅं बैठे हुए हैं और घुड़सवार और पैदल पुलिस सत्याग्रहियों और घेरे के बीच कंधे से कंधा भिड़ा कर खड़ी हुई थी। हम टेढ़े-मेढ़े रास्ते से निकलकर फिर मालवीयजी के पास कुछ देर तक बैठे रहे।
मैंने देखा कि मालवीय जी मन ही मन बहुत भिन्नाए हुए थे और ऐसा मालूम होता था कि वे अपने मन का आवेश बहुत रोक रहे थे। एकाएक बिना किसी को कुछ पता दिए उन पुलिस वालों और घोड़ों के बीच अद्भुत रीति से निकल कर उन्होंने गोता लगा लिया। यों तो किसी भी शख्स के लिए इस तरह गोता लगाना आश्चर्य की बात होती।
लेकिन मालवीय जी जैसे बूढ़े और दुर्बली शरीर वाले व्यक्ति के लिए तो ऐसा करना बहुत ही चकित कर देने वाला कार्य था। खैर, हम सबने उनका अनुकरण किया। हम सब पानी में कूद पड़े। पुलिस और घुड़सेना ने हमें पीछे हटाने की थोड़ी बहुत कोशिश की, मगर बाद को रुक गई। थोड़ी देर बाद वह वहाॅं से हटा ली गई।
हमने सोचा था कि सरकार हमारे खिलाफ कोई कार्यवाही करेगी। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। शायद सरकार मालवीय जी के खिलाफ कुछ करना नहीं चाहती थी। इसलिए बड़े के पीछे हम छुटभैये भी अपने आप बच गए।
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