देखने में उदयपुर की विजय ने राजकुमार खुर्रम (यानी शाहजहाँ) के यश और प्रभाव को स्थिर आधार पर स्थापित कर दिया, परन मुगल-सामाग्य में ऐसा प्रभाव जो केवल योग्यता और वीरता पर अवलम्बित हो, न केवल अस्थिर प्रत्युत भयानक समझा जाता था, क्योंकि उससे डाह पैदा हो जाती थी। वह डाह का युग था। वेटे से बाप ईर्ष्या करता था। भाई से भाई ईर्ष्या करता था। ऐसे युग में प्रभाव की स्थिरता के लिए किसी प्रभावशाली सहायक की जरूरत थी। शाहजहाँ को वह मिल गया। शाहजादा खुर्रम की शादी नूरजहाँ के भाई आसिफखाँ की लड़की ‘ताजमहल’ से हो गई, जिसके कारण देश की असली शासिका नूरजहाँ और सेनापति आसिफ खाँ की पूर्ण सहानुभूति शाहजादा को प्राप्त हो गई।
बेचारा शाहजादा खुसरो पहले ही पिता के क्रोध का पात्र था। वह तो बेचारा दिन-रात यही रोता था कि यदि मैं राजकुमार न होकर किसी गरीब के घर पैदा होता, तो अधिक उत्तम होता। राजगद्दी पर बैठने के उम्मीदवारों की सूची से खुसरो का नाम खारिज-सा हो चुका था । खुरम के उदय ने खुसरो के भाग्य को बिल्कुल मिटा दिया। लोग खुसरो पर दया करते थे, उसके लिए दुआ करते थे, परन्तु वह सम्भावना किसी के हदय में भी शेष नहीं रही थी कि वाह राजगद्दी पर बैठेगा।
योरोपियन यात्रियों ने लिखा है कि सामान्य प्रजा में खुसरों के समर्थकों की संख्या बहुत अधिक थी, वह कहना कठिन है। उस बेचारे की दशा दया के योग्य थी। गद्दी पर बैठकर जहाँगीर ने जो पहला काम किया, वह यह था कि अपने बड़े लड़के को एक हाथी पर बिठाकर बाजार में घुमाया। हाथी के आगे-आगे एक चोपदार मजाकिया तौर पर बेचारे को सलाम करता हुआ जाता था। जहाँगीर ने यह नाटक खुसरों की हँसी उड़ाने के लिए किया होगा, परन्तु कहा जाता है कि प्रजा पर उसका असर उल्टा ही पड़ा। लोग बेचारे की दुर्दशा पर रोते थे, यहाँ तक कि एक दो स्थानों पर दंगा होते-होते बचा। इसके पीछे अभागे राजकुमार को अधिक समय कैदखाने में ही गुजारना पड़ा। कैदखाने में भी हथकड़ी पहनना जरूरी समझा जाता था। कुछ समय के लिए राजकुमार की
आँखों की पलकें सी दी गई थीं, ताकि वह कोई शरारत न कर सके। शाहजहाँ का सितारा प्रतिदिन ऊँचाई पर जा रहा था। जो आवश्यक कार्य था, वह उसी के सुपुर्द किया जाता था और उसी के हाथों होता था। वह अपने समय का योग्यतम सेनापति समझा जाता था। दक्षिण में दशा फिर बिगड़ रही थी। अकबर ने अपने शासन के अन्तिम समय में मुगल-सत्ता को दक्षिण के कुछ हिस्से में स्थापित किया था परन्तु वह सत्ता देर तक जीवित न रह सकी। मलिक अम्बर नाम के एक अभी सोनिया के निवासी ने डूबते हुए दक्षिण के राज्य को फिर सहारा दिया।
वह अहमदनगर के बादशाह का वजीर था वह युद्ध में बहादुर, नीति में चतुर और प्रबन्ध में दक्ष था। औरंगाबाद के समीप नया शहर बसा और उस नये शहर में राजधानी बनाकर उसने मुर्दा रियासत के रगों में नया रुधिर दौड़ा दिया। सेना को नये सिरे से तैयार किया। टोडरमल की लगान-पद्धति को चलाकर प्रजा को सन्तुष्ट कर दिया और जिस युद्ध-नीति की सहायता से औरंगजेब के समय में मराठा सरदार सफलता प्राप्त करने वाले थे, उसका अवलम्बन किया। वह युद्ध-नीति यह थी कि बढ़ती हुई सेनाओं के सामने से पीछे हट जाना, चारों ओर पहाड़ों और नालों में फैलकर छुप जाना और मैदान को साफ छोड़ देना। रास्ता खाली देखकर मुगल सेनायें आगे बढ़ जाती थीं, परन्तु आसपास के घाटियों और नालों के रास्तों में शत्रु का पीछा नहीं कर सकती थी।
मुगल-सेनाओं ने रात को डेरा डाला और शत्रु ने चारों ओर से छापे मारने शुरू किये इक्के-दुक्के को काट डाला, रसद का आना रोक दिया, पीछे के रास्ते को खतरनाक बना दिया। दक्षिण के हल्के हल्के आदमी छोटे-छोटे घोड़ों पर सवार गोर जिस फुर्ती से भाग जाते और फिर इकट्ठा हो जाते थे, शानदार खेमों, गडाडीन घोड़ों और तोपखानों से लदी हुई मुग़ल-सेनायें उससे चकरा जाती थी, मलिक अम्बर ने इसी युद्ध-नोति का अवलम्बन किया।
मलिक अम्बर के विद्रोह को दबाने के लिए कई सेनापति भेजे गये, परन्तु उनमें से किसी को भी सफलता न प्राप्त हुई। तब जहाँगोर ने उस पर कई ओर से इकट्ठा धावा करके विद्रोह को कुचलने का निश्चय किया। तीसरे शाहजादे परवेज को आक्रमण की सेना का सरदार बनाया गया। उसकी सहायता के लिए राजा मानसिंह, खानजहान लोदी और गुजरात के सूबेदार अब्दुलखों को नियुक्त किया गया, परन्तु यह लम्बी-चौड़ी सेनापतियों की फौज भी मलिक अम्बर को पराजित न कर सकी। उस फुतीले और बहादुर सरदार ने भिन्न भिन्न दिशाओं से आने वाले शत्रुओं को आपस में मिलने से पूर्व हो अलग-अलग
पराजित कर दिया। जहाँगीर की आँखें फिर शाहजहाँ की ओर फिरीं। दक्षिण को जोतने का कार्य उसके सुपुर्द किया गया। घटनाचक्र ने उसकी सहायता की। मलिक अम्बर की चोरता अपने बराबर वाले सरदारों और दक्षिण के अन्य सरदारों की ईप्र्यां से उसकी रक्षा न कर सकी। दक्षिण में ही उसके शव पैदा हो गये। जब शाहजादा खुर्रम सेनापति बनकर दक्षिण की ओर रवाना हुआ, तब मलिक अम्बर का प्रभाष बहुत कुछ कम हो चुका था। उसने देख लिया कि अब सामना करना व्यर्थ है। शीघ्र ही निजामशाही रियासत की ओर से आधीनता का सन्देश शाहजादा की सेवा में आ पहुँचा। अहमदनगर तथा अन्य जो स्थान मुगल-राज्य से मलिक अम्बर ने छोने थे, वह सब वापस दे दिये गये। फिर से एक बार राजधानी में शाहजादा खुर्रम का जयजयकार गूंज उठा। उसमें कोई सन्देह शेप न रहा, कि वह मुगल-सम्राट का उत्तराधिकारी होगा।
दो वर्ष तक दक्षिण में शान्ति रही। शान्ति के अवसर का सदुपयोग करने के लिए जहाँगीर ने कश्मीर की सुन्दर पाटी में महोनों तक आनन्द किया। यह स्वर्णिम स्थान उस विलासी बादशाह को बहुत ही प्यारा था। सर्दी थी, पानी था, हरियाली थी, सुन्दरता थी और निश्चिन्तता थी। जहाँगीर को और क्या चाहिए? श्रीनगर का शालीमार बाग आज भी जहाँगीर की सुरूचिपूर्ण यात्राओं का स्मरण करा रहा है। १६२० ई० में कश्मीर में उसने सुना कि दक्षिण में विद्रोहियों की आग फिर से जल उठी है। मलिक अम्बर ने यह सुनकर कि बादशाह कश्मीर में सो रहा है, फिर से सिर उठाया।
जहाँगीर के लिए शीतल घाटी का त्याग करना कठिन था। उसने शाहजहाँ को दक्षिण जाने का आदेश भेज दिया, परन्तु बिना इस बात का अन्तिम निर्णय किये कि राज्य का उत्तराधिकारी उसी के लिए सुरक्षित रखा जायेगा, फिर से दक्षिण की कठिन लड़ाई में जीवन को सन्देह में डालना शाहजादे को उचित प्रतीत न हुआ। उसने बादशाह से इस बात का पक्का और स्थूल सबूत मांगा कि गदी पर उसी को बिठाया जायेगा बादशाह ने अपनी बला दूसरे के सिर डालने का अच्छा मौका देखकर खुसरो को ही उसके सुपुर्द कर दिया। वह अभागा राजकुमार पिता को छोड़ भाई का बन्दी बना, परन्तु यह अपमान उसे अधिक देर तक बर्दाश्त न करना पड़ा। दक्षिण की जलवायु ने या भाई की डाह ने उसके लिए जहर का काम किया। थोड़े दिनों बाद भाग्यहीन खुसरो के प्राण पखेरू राजकुमार के शरीर को दुःखों का घर समझकर स्वाधीनता की तलाश में प्रयाण कर गये इधर से निष्कंटक होकर शाहजहाँ ने पूरे यत्न से दक्षिण में युद्ध किया और थोड़े ही समय में मलिक अम्बर ने क्षमा मांग कर अधीनता स्वीकार करने का चिह्न स्वरूप हर्जाना अदा कर दिया।
प्रत्यक्ष रूप में शाहजहाँ का प्रभाव अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका था। राज्य का उत्तराधिकारी खुसरो मर चुका था। योद्धाओं में शाहजहाँ का सर्वोपरि मान था। तीसरा राजकुमार यद्यपि अपने पिता का प्यारा था, क्योंकि वह जहाँगीर के टक्कर की शराब पी सकता था, परन्तु उसमें योग्यता नहीं थी। राज्य की असली संचालिका नूरजहाँ खुर्रम के पक्ष में थी। राज्य की रक्षा उसके बिना असम्भव थी। किसी राजपुत्र के लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात क्या हो सकती है ?
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