मनुष्य शरीर की संरचना वृक्ष-वनस्पतियों के संसर्ग से हुई है। वनस्पतियों से ही संतुलित आहार का उपक्रम बढ़ता और आरोग्य लाभ मिलता है। शक्ति की प्राण शक्ति अथवा जीवनी शक्ति का स्त्रोत भी इन्हीं को माना जाता है। शरीर को जितने जलाश, खनिज और विटामिन्स की आवश्यकता अनुभव होती है उसकी आपूर्ति वृक्ष-वनस्पतियों और शाक-सब्जियों से भी संभव है। इनके अभाव में कायिक विकृतियां पनपती और मनुष्य को रोगी बना कर छोड़ती है। वर्तमान के प्रदूषित वातावरण में शरीर में विभिन्न प्रकार की आधिव्याध्यिों का प्रवेश कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पर इसका अभिप्राय यह तो नहीं कि तात्कालिक लाभ की दृष्टि से शरीर को खोखला बना देने वाली ऐन्टीबायोटिक दवाओं का ही सेवन किया जाय? जबकि जड़ी बूटियों में शरीर को पुनः स्पफूर्ति प्रदान करने का प्राकृतिक गुण विद्यमान है। पुनर्नवा का उल्लेखी इसी संदर्भ में किया जा रहा है।
आयुर्वेद शास्त्रों में पुनर्नवा एक रक्त वर्धक औषधि के स्वरूप में मानी जाती है जिसके सेवन से शरीर में नयी ताजगी का आभास होने लगता है। कोई भी औषधि अपने गुण-धर्म के अनुसार ही अपनी प्रभावशीलता दिखाती है। पुनर्नवा का सूखा पौध वर्षा ऋतू में हराभरा दिखने लगता है। अपनी मृतप्रायः अवस्था से नवजीवन में प्रवेश करता है। भारतीय ऋषि मुनियों ने इसका नामकरण संस्कार भी इसी गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए किया है। यथा नाम तथा गुण बालो उक्ति इसी औषधि के साथ चरितार्थ होती है। गदहपूरन और शोध्रानी के नाम से भी इसे पुकारा जाता है।
वनस्पति शास्त्र में इसको बोअरेविया डिफ्रयूजा कहकर सम्बोधित करते है। इरैक्टा तथा सेपेण्डा भी इसी के नाम है। भारतीय औषधि अनुसंधन परिषद के महान वैज्ञानिकों ने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्रा में लम्बे समय तक शोध् कार्य किया है और अपने सामूहिक प्रयत्नों के पफल स्वरूप मैडीसिनल प्लाण्ट्स आपफ इण्डिया नामक एक शोध् ग्रंथ को प्रकाशित करके पुनर्नवा के औषधीय गुणों को स्पष्ट करते हुए बताया है कि सपफेद पफूल वाली पुनर्नवा ही भेषजीय गुणों से ओत-प्रोत है। सही-समुचित जानकारी के अभाव में रक्त पुनर्नवा जिसे सामान्य स्तर की घास समझा जाता है को मार्केट में श्वेत के साथ मिश्रित स्वरूप में भी खरीदनी पड़ती है।
सफेद रंग के फूल की पुनर्नवा का विकास विस्तार समूची वर्षा ऋतू में होता है। हर वर्ष वर्षा में नये सिरे से निकलते और गर्मी में सूखने लगते है। इसके दो अथवा तीन मीटर लम्बे क्षुण के काण्ड लाल रंग के होते है। पत्ते छोटे-बड़े दोनों ही प्रकार के देखने को मिलते है। सपफेद रंग के पुष्पों की आकृति छाता जैसी होती है। पफल छोटे और बीज में चिपचिपापन रहता है। जड़ उंगली के बराबर मोटी और एक पफीट लम्बी जमीन के भीतर तक रहती है। नरम होने से यह जल्दी टूट भी जाती है। स्वाद में तीखापन रहता है। गंध् उग्र स्वभाव की होती है। सदी के दिनों में इसका पंचांग बनाकर शुष्क स्थान पर रखा जाता है। नमी के स्थान पर रखने से खराब होने लगती है। इसके प्रयोग की अवधि एक वर्ष तक मानी गयी है। ताजी औषधि ही शरीर को तरोताजा रखती है।
विश्व विख्यात आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत ने पुनर्नवा के पत्तों के प्रयोग से शरीर की शुद्धि की बात बहुत पहले कही थी। रक्त की अशुद्धि के कारण ही तो हृदय रोग के घातक परिणाम सामने आते है। पुनर्नवा के सेवन से हृदय संकोचन बढ़ता और रक्तचाप जैसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ता। मूत्र की मात्रा बढ़ा देने से गुर्दो की बीमारियां भी परेशान नहीं करती। आधुनिक चिकित्सा विशेषज्ञों का अभिमत है कि पुनर्नवा में पाये जाने वाला पौटेशियम माह ट्रेड नामक लवण रक्त चाप की बीमारी को दूर करता और हृदय रोग से मुक्ति दिलाता है। मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानियों का यह भी कहना है कि पोटेशियम ही एक ऐसा आवेशधरी खनिज है जो मांसपेशियों के रोगों में आहन्स के रूप में प्रवेश पाकर उनकी संकुचन क्षमता में अप्रत्याशित अभिवृद्धि करता है। यह औषधि पोटेशियम प्रधन होने के कारण शरीर के परिशोध्न में भी अध्कि लाभकारी सिद्ध होती है।
गुर्दे और हृदय के रोगों को दूर करने में पुनर्नवा का प्रयोग अचूक है। इसमें विटामिनों की प्रचुरता के कारण भारत देश के लिए तो यह एक प्रकार का वरदान ही साबित होती है। इस समय हमारे देश में ‘एपीडेमिक ड्राप्सी’ जो सरसों के तेल में ‘आर्मीजोन मैसिकाना’ की मिलावट से होती है बड़ी स्वास्थ्य समस्या खड़ी किये है। इस विषाक्त पदार्थ के सेवन से महामारी जैसी भयानक स्थिति उत्पन्न होने लगती है। ऐसी स्थिति में यह औषधि एक प्रकार की खुराक भी हो सकती है और रोग निरोधक क्षमता भी रखती है।
पुनर्नवा की पत्तियाँ जितनी गुणकारी होती है। उससे कहीं अधिक रोग निरोध् क्षमता जड़ों में समाहित है। रासायनिक विश्लेषण के उपरांत यही तथ्य सामने आये है कि इस औषधि का मुख्य भाग ऐल्केलायड होता है जो पुनर्नवान के नाम से भी जाना जाता है। जल से पृथक रहने वाले भाग में स्टरान की मात्रा अध्कि पायी जाती है। जिनमें बीटा-साहटोस्टीराॅल और अल्पफान्ट्र साई टोस्टी राॅल प्रमुख भी प्राप्त हुआ है। इन सबके अलावा कुछ कार्बनिक अम्ल और लवणों की मात्रा भी देखने को मिली है। स्टायरिक और पामटिक अम्ल इसके ज्वलंत प्रमाण है। लवणों में पोटेशियम नाइट्रेट, सोडियम सल्पफेट तथा क्लोराइड की गणना प्रमुख रूप से की गयी है। इस औषधि की सूक्ष्म शक्ति-सामथ्र्य इसलिए तो अधिक बढ़ी चढ़ी मानी गयी है।
कुछ दिन पूर्व जनरल आपफ रिसर्च इन इण्डियन मेडिसिन रिसर्च द्वारा एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की गयी थी जिसमें आयुर्वेदिक औषधियों के गुण-धर्म की प्रायोगिक क्षमता पर प्रकाश डाला गया था। विवेचन-विश्लेषण के उपरान्त यही पाया गया कि पुनर्नवा के क्वाथ की अपेक्षा चूर्ण अधिक लाभकारी होता है क्योंकि इनमें विद्यमान मूत्राक घटक जल में घुलते नहीं है। इतना ही नहीं इस औषधि को शोध् सम्बन्धी बीमारियों में उसी तरह लाभप्रद पाया गया जिस तरह स्टीरायड नामक पश्चात औषधि क्रियाशील होती है। आरोग्य वर्धक होता है। हृदय रोगी के लिए इसके पत्तों की सब्जी बनाकर भी दी जा सकती है। इसमे शोध् हरण की क्षमता विद्यमान रहती है। श्वांस व शूल के रोगों में तो यह तत्काल पफायदा पहुंचाता है।
मूत्र सम्बन्धी रोगों में इसका क्वाथ एक से तीन चम्मच की मात्रा में लेने का विधन है। क्वाथ के लिए या तो ताजा पौधे को लिया जाय अथवा सूखाये गये पंचांग से भी विनिर्मित किया जा सकता है। शास्त्रोक्त विधि विधान के अनुरूप तो चूर्ण अधिक हितकर माना जाता है। कपफ-खाँसी, शोध् तथा हृदय रोगों को मिटाकर शरीर की दुर्बलता को मार भगाने में यह औषध् िअपनी सराहनीय भूमिका का निर्वाह करती है।
कभी-कभी तो इसके पत्तों का लेपन भी लाभकारी होता है। नेत्रा रोगों में इसका रस डालने से लाभ होता है। वमन, पीलिया तथा अग्निमंदता में प्रयोग करने से रोग मुक्ति मिलती है। पथरी और पेशाब में जलन से छुटकारा तुरंत मिलता है। स्त्रिायों के लिए प्रदर रोग में पुनर्नवा का प्रयोग ही बताया जाता है। इसलिए श्वेत पुनर्नवा को अत्यध्कि महत्वपूर्ण औषध् िके स्वरूप में माना गया है। यह एक प्रकार का ऐसा अद्भुत टाॅनिक है जो शरीर को हर क्षण ताजगी प्रदान करते रहता है।