अपने समाज में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और बलात्कार जैसी घटनाओं की चर्चा सभी करना चाहते हैं लेकिन उसके कारणों की नहीं। इन बलात्कारियों की मानसिकता को खाद-पानी कहां से मिल रहा है? इस पर अमूमन लोग मौन हैं। अभी तो सिनेमा घर कोरोना की वजह से कुछ महीनों से बंद पड़ा है वरना कहानी यह है कि किसी भी फिल्म में बलात्कार का सीन दिख जाए तो पूरा सिनेमा हॉल मर्दानी सीटियों से गूंज उठता है।
कुछ अदाकारा गर कम कपड़ों में हुस्न की नुमाइश से किसी को रिझाने का प्रयास करें तो पुरुष युवा वर्ग मायूस हो जाता है कि खुलकर नहीं दिखाया। आज भी जब पुरुष समाज अपनी बहन-बेटियों को तो दूसरों की नजर से बचाने के लिए पुरजोर कोशिश करे और सरेराह गुजरती हुई दूसरों की बहन बेटियों को नीचे से लेकर ऊपर तक एकटक घूरता रहे, तब ऐसे मर्दाना समाज की मति और गति को आसानी से समझा जा सकता है कि नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी की मंजिल काफी दूर है।
बहुत लंबा सफ़र बाक़ी
अभी बहुत लंबा सफर करना बाकी है। और ऐसे में इन्हीं हादसों से होते हुए पूरे समाज को गुजरना होगा, यह दंश न चाहते हुए भी सहना होगा। समाज और मानवता के हित में सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार ही नहीं दिखता। फिल्मी दुनिया के उम्दा कलाकार से लेकर और मध्यप्रदेश के डीजी शर्मा साहब तक की हाल-फिलहाल ख़बरें या कहूं इनके द्वारा नवपीढ़ी के लिए खोदी गईं कब्रें हम सबके सामने है। सामाजिक व्यक्ति अपने मानसिक संताप और दुखों से निवृत्ति के लिए धर्म की राह पकड़े तो वहां भी साधुवेश में छिपे बहुतेरे कलियुगी रावण स्त्रीहरण और नारी अस्मिता का शिकार करने के लिए पहले से तैयार हैं।
और नैतिक पतन की यह कहानी आज हरेक क्षेत्र में लागू है। कोई इलाका बचा नहीं है। कोई ऐसा पेशा नहीं, जहां हम इत्मीनान से कह सकें यहां सब कुछ ठीक है। हालांकि, मैं यह बात कहने और लिखने में काफी संकोच कर रहा था कि लिखूं या नहीं। लेकिन मैं बड़ी विनम्रता से आज यह बात कहूंगा जरूर कि घर से एक स्त्री भी गर बिना वस्त्र के यदि किसी मार्ग से गुजर रही हो तो भी उसे किसी खतरे का भय नहीं होना चाहिए क्योंकि हम उस देश के वासी हैं जहां तमाम संप्रदाय चाहे वह शैव हों या जैन मुनि के दिगंबर संप्रदाय से जुड़े लोग। पुरुष साधकों के तन पर एक भी वस्त्र नहीं होता लेकिन किसी राह से ये जब भी गुजरे, आज तक मैंने किसी स्त्री को इन लोगों से चिपकते नहीं देखा, अपने देश में इनका अपहरण होते नहीं देखा। स्त्री पक्ष को यह स्थिति सहज स्वीकार्य है।
लेकिन इसी रूप में कदाचित स्त्रियां निकल जाएं तो क्या यह स्थिति पुरूष को भी वैसे ही सहजरूप में स्वीकार्य है। हरगिज नहीं। शायद इसीलिए इन संप्रदायों से जुड़ी साधिकाएं भी अमूमन वस्त्र के साथ ही समाज में बाहर निकलती हैं। शायद इसलिए भी कि पुरुष समाज पर इन्हें भरोसा नहीं। खैर, इस तरह की चर्चाएं उच्च मन:स्थिति की मांग करती हैं और श्रेष्ठ विचारदशा से युत् विचारवान समाज में ही इसका प्रकटीकरण संभव है और उचित भी।
आखिर पुरुष इतना कब से गिर गया ?
लेकिन सवाल उठता है कि आखिर पुरुष ही ऐसा व्यवहार क्यों करता है? स्त्री कम कपड़ों में हो या पूरे कपड़ों में, वह इतना उत्सुक, उतावला और अनियंत्रित कैसे हो जाता है? जवान लड़कियों और स्त्रियों की बातें गर छोड़ भी दें तो एक साल, दो साल व चार साल की निर्दोष मासूम बच्चियों तक जिनमें कामुकता का कहीं नामोनिशान तक नहीं, उसका भी बलात्कार कर बैठता है तो यह बात सच है इसकी पूरी जिम्मेदारी पुरुष समाज की ही है और इस जिम्मेदारी से वह कतरा नहीं सकता, मुंह मोड़ नहीं सकता, कहीं से भाग नहीं सकता।
यदि वह नैतिक जिम्मेदारी को अपने आचरण का हिस्सा बनाने में अक्षम है तो सक्षम कैसे बनाया जाए? इस पर पुरुष समाज को ही विचार करना होगा क्योंकि यह समस्या मूलतः उसी की है तो समाधान उसे ही ढूंढना होगा। और यह भी सच है जब तक पुरुष अपनी कमजोरियों को स्वीकार नहीं करता, तब तक इस मलीन आचरण, आपराधिक प्रवृति या मनोविकार का इलाज संभव नहीं। और मैं यह भी कहूंगा कि बलात्कार या बलात्कार की धमकी सिर्फ एक कामुक क्रियामात्र नहीं, बल्कि यह स्त्री को उसी संकीर्ण जंगली दुनिया में धकेलने वाला वह बदमिजाजी खयालात और जंगली सोच हैं जिसे जंगलों में ही छोड़ कर हम कभी जंगलों से बाहर आये थे। पर अफसोस! कहने को तो जंगल छोड़ा लेकिन जंगलीपना धीरे से अपने साथ ले आए। वरना पुरुष हरेक छेड़छाड़ और बलात्कार के साथ ऊंची आवाज में यूं मुनादी नहीं करता कि खबरदार, बाहर निकली, तो हम तुम्हारे साथ यही करेंगे जैसा तब निर्भया के साथ किया और अब हाथरस या बलरामपुर में किया है।
अब इससे अधिक जंगलीपना और क्या होगा!